रविवार, 17 सितंबर 2017

!! मौत से पहले क्यों मरें !!


दोपहर की चिलचिलाती धूप थी पर ए सी की वजह से कार के अंदर गरमी का अहसास भी नहीं था। हाँ, शीशे के पार धूप देख लग रहा था कि बाहर काफी गर्मी होगी। बीच में एक शीशा था जो सामने का हाल दिखा तो रहा है पर हमें सही-सही महसूस नहीं करने दे रहा था। जैसे सुख-सुविधाओं से लदी जिंदगी से गरीबी दिखती तो है पर वो अनुभव नहीं होता। और अक्सर हम शीशे के इसपार बैठ उसपार का अंदाजा भर लगा उसे अपना अनुभव बता देते हैं।

खैर गाड़ी जब अगली रेड लाइट से मुड़ी तो फ्री वे या हाई वे कह ले उसपर चल पड़ी। फ्री वे पर कोई रेड लाइट नहीं होता। गाड़ी की स्पीड भी अधिकतम होती है। हमारी गाड़ी के आगे कुछ दूर तक कोई दूसरी गाड़ी नहीं थी। पर पीछे कई गाड़ियाँ बड़ी रफ़्तार से आ रही थी। 

अचानक कुछ दूरी पर दो गिलहरियाँ सड़क किनारे लगे पेड़ों के झुरमुट से निकल खेलते-खेलते सड़क पे आ गयी। वो हमारे आने से बेफिक्र पकड़म-पकड़ाई खेल रही थी। जैसे जैसे गाड़ी पास पहुँच रही थी हमारी हालत खराब हो रही थी पर वे बेखौफ थी। उस समय हम ऐसी स्थिति में थे कि उन नन्ही गिलहरियों पे गाड़ी भी नहीं चढ़ा सकते और ब्रेक भी नहीं लगा सकते। गाड़ी चढ़ा देते तो कई रात नहीं सो पाते और ब्रेक लगाते तो अपने साथ-साथ कितनों को सदा के लिए सुला देते क्योंकि वहाँ अचानक ब्रेक मारने का मतलब है अपने साथ-साथ पीछे से आ रही गाड़ियों के लिए भी एक भयानक दुर्घटना का कारण बनना। पीछे वाली गाड़ियाँ छोटी-छोटी गिलहरियों की अचानक उपस्थिति से अनजान थी मतलब वे अपनी निर्बाध गति से आ रही थी। दूरी इतनी शीघ्रता से तय हो रही थी कि अब दोनों गिलहरियाँ हमें साफ दिख रही थी। 

मन भगवान से क्या-क्या प्रार्थना कर रहा था पता भी नहीं चला लेकिन ज्यों ही हम वहाँ पहुँचे गिलहरियाँ सड़क के दूसरी ओर चली गयी। लेकिन खेलते-खेलते ही। अब डर लग रहा था कि बाकी गाड़ियों से भी बच जाए वे। पीछे देखा तो पाया वे अब सड़क की दूसरी ओर से भगाकर फिर से उस तरफ आ गयी थी जिस तरफ घने पेड़ थे। उनका घर था। कोई गाड़ी न रुकी न धीमी हुई पर पता नहीं कैसे वे गिलहरियाँ सही-सलामत अपने घर पहुँच गयी थी। 

शायद इसे ही कहते हैं ,"जाके राखे साइयाँ मार सके न कोय"।

बड़ा सुकून मिला मन को। पिछले दो-चार मिनट की लम्बी मानसिक यात्रा की सुखद समाप्ति हुई। सच कभी-कभी चंद मिनटों में भी एक जिंदगी-सी जी जाते हैं हम।

अब मैं सोच रही थी कि ये गिलहरियाँ जब तक चक्के के नीचे नहीं आयी वो हँसने, खेलने में ही लगी रही। हमारी दृष्टि से उनके लिए ये घातक था पर उन्हें इसका पता हो ऐसी उम्मीद करना बुद्धिमानी नहीं होगी। उन्हें जो साथी, परिवेश, समझ, शरीर उपरवाले ने दिया है वे उसे भरपूर जी रही थी। उनकी जिंदगी बाक़ी थी तो वे बच भी गयी।

हम भी कभी भी काल के चक्के के नीचे आ सकते हैं न।  ये सत्य है। माने या न माने। लेकिन जब तक चक्के के नीचे आ नहीं  जाते तब तक तो अपने परिवेश, साथी, समाज के संग हँसते-खेलते, सुख-दुःख साझा करते बीता ले। जो साँसे, जो जिंदगी बची है उसे सार्थकता से जी ले। मौत तो आनी ही है फिर मौत से पहले क्यों मरें। 

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